भारी बहुमत दर्ज करने वाले नरेंद्र मोदी को अब अच्छे दिन लाने हैं



   

दिल्ली में 17 मई को नरेंद्र मोदी का भव्य स्वागत
उम्मीद  की राजनीति ने संभ्रम और भुलावे की राजनीति पर जीत हासिल की. नियति ने वंशवाद को हरा दिया. आशा ने निराशा को भगा दिया. और गुजरात के वडनगर का शख्स 7 रेसकोर्स रोड का नया बाशिंदा बन गया है. भारत ने नरेंद्र मोदी में अपनी सामूहिक अपेक्षाओं का मूर्त रूप पा लिया है, दुनिया के राजनैतिक मंच पर अपना स्थान बनाने और दुनिया की सर्वाधिक वांछित अर्थव्यवस्था का दर्जा फिर पाने के लिए.
पांच साल की मंदी से सुस्त पड़ा विकास, कमजोर नेतृत्व और घोटालों से दागदार सार्वजनिक जीवन-ऐसे में मोदी ऐसा विचार था जिसका समय आ पहुंचा था. 81.4 करोड़ मतदाताओं ने, जिनका पांचवां हिस्सा पहली बार मतदान कर रहा था-अपना विश्वास, अपनी आस्था और भरोसा एक संघ प्रचारक और कभी रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाले शख्स को सौंप दिया है. इस शख्स के अच्छे प्रशासन और विकास के वादे ने ऐसा जादू किया कि मतदाताओं ने नकारात्मक प्रचार करने वालों को सिरे से खारिज कर दिया, उस शख्स के खिलाफ हर हथकंडा अपनाया गया-हिंदू बहुसंख्यकतावाद और पक्षपाती पूंजीवाद का भय जताया गया. लेकिन राजीव गांधी के आधुनिकतावाद को पहली बार समूचा समर्थन देने के बाद भारत के विचार को नया आकार देने के लिए एक शक्तिशाली जनादेश मोदी को दिया गया है. लोगों ने प्रशंसा भरी नजरों से देखा कि किस तरह उन्होंने पहले पार्टी को जीता, फिर राष्ट्र को और इस तरह बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर की ताकत बना दिया. मोदी ने मानो अपनी किस्मत खुद लिखी है. सारी विपरीत परिस्थितियों से पार पाते हुए उन्होंने खुद को भारतीय सियासत का सिकंदर साबित कर दिया है. अब प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें अच्छे दिन लाने हैं.
बीजेपी की जीत
‘‘सबसे पहले देश’’ की राजनीतिअब मोदी के लिए कुछ करने का समय आ गया है. यह ऐसी चुनौती है, जिसका सामना मोदी को करना ही पड़ेगा क्योंकि चार बार गुजरात का मुख्यमंत्री रहा शख्स देश की कमान भर नहीं चाहता, वह देश को नए सिरे से गढऩे का इरादा रखता है. राजनैतिक विश्लेषक सदानंद धूमे कहते हैं कि इसके दो बुनियादी पहलू हैं. एक है, नए तरह का बहुलतावाद तैयार करना, जो कांग्रेस पोषित और व्यवहार में लाई जाती रही धर्मनिरपेक्षता को नकारता है. यह बहुलतावाद भारत को अंगीकृत करता है और इसका चरम रूप तब दिखाई देता है जब आजमगढ़ में एक रैली में मोदी सुभाषचंद्र बोस के ड्राइवर कर्नल निजामुद्दीन के पांव छूते हैं.

यह भारतीय राजनीति की अंधभक्ति और अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वियों के वोट बैंक को चुनौती देता है. राष्ट्र के नए स्वरूप का दूसरा पहलू है, देश के आर्थिक एजेंडे को केंद्र में लाना. ऐसा करते हुए उन्हें संघ परिवार के उपला (गोबर) मार्का पूंजीपतियों को खुश करने के लिए रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर रोक का झुनझुना भी देना होगा. उनकी पहली प्रतिबद्धता उन हताश और निराश हो चुके युवाओं के प्रति होगी, जिन्होंने उन्हें ऐतिहासिक जनादेश दिया और जो उन्हें मुक्त बाजार और जोशीली उद्यमिता के पुरोधा के रूप में देखना चाहते हैं. वे कई बार कह चुके हैं कि वे जानते हैं कि गरीबी क्या होती है और उस हाल से निकलने की बेसब्री के अनुभव से भी वे गुजर चुके हैं.

लेकिन भारत को बदलना आसान नहीं होगा. भारत के नए लौह पुरुष को ऐसी अर्थव्यवस्था विरासत में मिली है जिसकी विकास दर 2003-04 के 8.2 फीसदी से गिर कर 4.9 फीसदी रह गई है. उसे ऐसी नौकरशाही की मदद से प्रशासन चलाना है जिसे यूपीए-2 की जड़ता से झकझोरना होगा. सबसे बढ़कर उसे संघ परिवार के कट्टर तत्वों से दूरी बनाए रखनी होगी जो सोचते हैं कि अब सब कुछ वसूलने का समय आ गया है. उनका अभियान भी सरल था. अब सवाल यह है कि उन पैदल सिपाहियों का क्या करें जिन्होंने उनके लिए जी-तोड़ काम किया. विपक्षियों से उन्हें मदद नहीं मिलेगी, अल्पसंख्यकों के खासे बड़े हिस्से को उनके उदय में आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के अधूरे एजेंडे की पूर्णता का खतरा दिखता है तो मुखर और प्रचंड वक्ताओं को मोदी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा नजर आते हैं.

मोदी को उन सब तक पहुंचना होगा, वैसे ही जैसे वे अब तक केशुभाई पटेल से लेकर लालकृष्ण आडवाणी सरीखे अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों के पास पहुंचते रहे हैं. उन्हें यह भी साबित करना होगा कि अच्छी बौद्धिक क्षमता के साथ-साथ भावनात्मक परिपक्वता भी उनमें भरपूर है, सख्त मिजाज होने के साथ-साथ वे कोमल हृदय भी रखते हैं. अपने साथ वे खासा प्रशासनिक अनुभव भी ला रहे हैं, वे पहले ऐसे प्रधानमंत्री होंगे जिसे 12 साल तक राज्य की बागडोर संभालने का भी अनुभव है. ऐसे देश में जहां संघीय ढांचे ने इतने प्रहार झेले हों, उसके लिए यह अच्छी बात है. और वैसे भी देश उनके ‘‘अच्छे दिन आने वाले हैं’’ के नारे के मोहपाश में है.
केंद्र में बाहरी शख्सहाशिए पर रहने वाले व्यक्ति के दर्द को उससे बेहतर कौन जान सकता है, जिसने कई वर्ष वहां बिताए हों. लेकिन मोदी सिर्फ स्थानिक अथवा भौगोलिक दृष्टि से दिल्ली दरबार के लिए बाहरी व्यक्ति नहीं हैं. वे सामाजिक दृष्टि से भी बाहरी हैं जो यहां के अंग्रेजी भाषी, अभिजात वर्ग में सहज नहीं हो पाएंगे. न ही खेल के अलिखित नियमों को आत्मसात कर पाएंगे जिस पर चलकर व्यक्ति सार्वजनिक रूप से नेक लेकिन निजी जीवन में अपराधों में सहभागी बनता है, पिछले दरवाजे से लेन-देन को क्या मोदी अपना सकेंगे? सत्तासीन होने वाले पहले प्रचारक अटल बिहारी वाजपेयी के परिवार की चाटुकारिता करने वालों को मोदी बर्दाश्त कर पाएंगे?

कइयों का तर्क है कि 2014 का आम चुनाव भारत के दो विचारों के बीच तर्क था-एक विचार था धर्मनिरपेक्ष भारत का जो विविधता का जश्न मनाता है, दूसरा उस विभाजित भारत का था जो एकरूपता को पूजता है. मोदी ने इस बहस को एक टैलेंट शो में बदल दिया, जहां प्रतिभाशाली भारत का सामना सामंतवादी भारत से था. कांग्रेस इसके प्रतिरोध में कुछ नहीं कह पाई क्योंकि मोदी ने एक दशक से विकास अवरुद्ध करने, खासकर नेहरू-गांधी परिवार पर मुफ्तखोरी की संस्कृति पोषित करने का आरोप लगाकर, उसके पांव के नीचे से जमीन पहले ही सरका दी थी.

सत्ता में आने के बाद बीजेपी क्या धारा 370 के प्रति प्रतिबद्धता, राम मंदिर निर्माण और समान नागरिक संहिता लाने का विचार त्याग देगी? क्या मोदी पाठ्यपुस्तकों के जरिए भारत के इतिहास के पुनर्लेखन के संघ के दबाव से बच पाएंगे? वे भारत के आर्थिक एजेंडे के बारे में फैसला लेने देंगे? अरसे से संघ प्रेक्षक और अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट ऑफ साउथ एशिया डिविजन के पूर्व प्रमुख वॉल्टर एंडरसन का मानना है कि आरएसएस मोदी की मजबूत शख्सियत से उतना ही भयभीत है जितने कि कई उदारवादी. वे कहते हैं, ‘‘मोदी अपने फैसले खुद लेने वाले इंसान हैं. ऊपर के पदाधिकारियों में डर है कि कार्यकर्ताओं की वफादारी आरएसएस की अपेक्षा मोदी के प्रति ज्यादा है.’’ उनका मानना है कि मोदी को बीजेपी के दक्षिणपंथियों और संघ परिवार से समस्या हो सकती है. प्रवीण तोगडिय़ा जैसे लोगों से उन्हें निबटना होगा.

बड़ा प्रश्न यह है कि वे कैसे प्रधानमंत्री होंगे? सारी शक्तियां अपने हाथ में रखने की छवि के विपरीत वे सत्ता का बंटवारा कर सकते हैं और करेंगे, लेकिन वे निष्ठा और ठोस परिणामों की अपेक्षा करते हैं. अंग्रेजी के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार जॉन इलियट  कहते हैं कि मोदी को सिर्फ नेतृत्व करने के लिए नहीं बल्कि कुछ करने के लिए चुना गया है, ‘‘भारत को नई नीतियों की जरूरत नहीं है. इसे फैसलों की जरूरत है.’’ उनका मानना है कि यह भारी बदलाव का संकेत है. मोदी के कॉर्पोरेट जगत के प्रशंसक दुनिया भर में संवाद कर भारत के बारे में फैली शंकाएं दूर करेंगे.
नरेंद्र मोदी
क्या होगा हारने वालों काड्ढ?जरा उन पार्टियों की तरफ भी ध्यान दें जिनका प्रचार मोदी की आंधी के सामने टिक नहीं सका. भारत की सबसे पुरानी पार्टी अपनी अब तक की सबसे करारी शिकस्त से कैसे निबटेगी? हार का इसका पिछला रिकॉर्ड स्तब्ध करने वाला रहा है. 1977 की हार के झटके ने इंदिरा गांधी के जुझारू व्यक्तित्व को सामने ला दिया था. 1989 में मतदाताओं की नकार ने राजीव गांधी को सौम्य बनाकर धुंआधार अभियान चलाकर मतदाताओं के बीच जाने को बाध्य किया लेकिन एक क्रूर आत्मघाती दस्ते ने उनकी जान ले ली. आज की दुर्दशा के लिए कांग्रेस खुद ही दोषी है. यदि 1982 में एम. अंजैया के साथ राजीव गांधी की हठधर्मिता एक साल बाद आंध्र प्रदेश में पार्टी की हार का कारण बनी तो तेलंगाना को राज्य का दर्जा देने के सवाल पर सोनिया गांधी के फैसले ने जगन मोहन रेड्डी को बागी बनाया.

लेकिन आंध्र  प्रदेश का हाथ से जाना तो हार की कहानी  का हिस्सा भर है. एक अन्य कारण है, सत्ता के तीन केंद्र-कमजोर प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी की कम होती उपस्थिति और खुद से ही बात करने में मशगूल रहने वाले राहुल गांधी. फिर सरकार की उपलब्धियों का श्रेय लेने का सवाल था. राजनीति विज्ञानी जोया हसन का कहना है कि श्रेय लेने की इस लड़ाई में अंततः सरकार को श्रेय दिया ही नहीं गया.

जहां तक केजरीवाल की आप का सवाल है तो उन्हें अपने दुस्साहस पर शर्मिंदा नहीं होना चाहिए. बड़े नामों पर आरोप लगाए, भ्रष्टाचार पर प्रचार केंद्रित रखा और बीजेपी तथा कांग्रेस में समानता गिनाते रहे. यदि कांग्रेस विपक्ष में बैठने के प्रति उत्साह नहीं दिखाती जो आप ऐसी पार्टी के रूप में उभर सकती है जो सार्वजनिक जीवन में जवाबदेही की आश्वस्ति देगी. लेकिन सरकार चाहे जितनी भी हठधर्मी हो, भारत में लोकतंत्र को पनपने के लिए आक्रामक विपक्ष जरूरी है.

अब जब नरेंद्र मोदी इस विशाल देश को चलाने की मुश्किल जिम्मेदारी संभालेंगे तो उन्हें एहसास होगा कि इस महान देश की अपेक्षाओं का आयाम उनकी जीत जैसा ही है, यानी विराट और विशाल

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