आखिर कसूर क्या है?


                 बैठे बैठे क्या करें करना है कुछ काम, शुरू करो राजनीति ले जसवंत सिंह का नाम


लेकिन अब शायद ये करना नेताओं के लिए डरावना सा लग रहा है ... क्योंकि जिस पाले में जसवंत सिंह थे, उन सब ने ऐन वक्त पर इनका साथ छोड़ दिया था| जसवंत सिंह की आंखों में आसूं इसलिए झलक रहे थे कि उन्हें बीजेपी से टिकट नहीं मिला था| इसके बाद जसवंत सिंह ने बीजेपी को ठेंगा दिखाकर निर्दलीय चुनावी समुंदर में कूद गए  ... फिर क्या था समुंदर किनारे उन्हें उनका बेटा मानवेन्द्र मिल गया| वो भी अपनी नाव लेकर अपने पिता के समर्थन में आ गए|


हालांकि जसवंत सिंह भाजपा पार्टी के वरिष्ठ नेता थे, लेकिन राजनीति के आगे उनका सब कुछ योगदान धरा ही रह गया| ऐसे में जसवंत सिंह जी को कौन समझाए कि अब राजनीति उन्हें नहीं बल्कि उनके बेटे मानवेन्द्र को करने दें| लेकिन जसवंत सिंह ये बात ही नहीं समझ रहे ... बात भी सही है| आखिर हम कौन होते हैं उन्हें समझाने वाले?! हमें अपनी औकात में रहना चाहिए दूसरों को समझाने के बजाय|


लेकिन क्या करें ये दिल मानता ही नहीं|


एक रोग है राजनीति, इसे हम लगा बैठे हैं| क्या है ये नशा जो बिन पिए चढ़ गई है| ये पागल राजनीति है जिसे हम लगा बैठे है ... मेरे ख्वाब में है वो ... मेरी नस नस में बसी है ... क्या? राजनीति


इन पंक्तियों के माध्यम से हम तो आप को ये समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि 'रोग' हमेशा दुखदायी साबित होता है, चाहे फिर कैसा भी रोग हो?


खैर छोड़ों इन बातों को ... हम तो यूं ही कभी-कभी शायरी भी लिख लेते हैं ...

तो हम बात कर रहे थे जसवंत सिंह की ... हालांकि बीजेपी ने जसवंत सिंह को ज़ोर का झटका बहुत ज़ोर से दिया| ये नए ज़माने की नई बीजेपी का नया रिवाज़ है| माना की राजनीति में चेहरे बदलते देर नहीं लगती, वो ही हुआ जसवंत सिंह के साथ, लेकिन इन्होनें भी मुह तोड़ जवाब देने में कोई कसर नहीं छोड़ी| क्योंकि इनके दिल-ओ-दिमाग में सिर्फ एक ही भूत सवार था ... बाड़मेर-जैसलमेर सीट से चुनाव लड़ने का| चाहे वो पार्टी से लड़ा जाए या फिर निर्दलीय, नतीजा चाहे कुछ भी हो|

ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि आखिर जसवंत सिंह का क्या कसूर था, जो उन्हें टिकट नहीं मिला| यह एक चिंतन का विषय है| वसुंधरा के इस अद्भुत अंदाज से राजनीति अवाक है, लोग हतप्रभ हो गए, तो बाड़मेर बेबस|

लेकिन जसवंत सिंह जैसे बड़े नेता आज बीजेपी से अलग-थलग हो गए| उनके मुकाबले बहुत बौने लोग बहुत बड़े पदों पर विराजमान होकर जसवंत सिंह जैसों की किस्मत लिखने के मज़े ले रहे हैं|

अंत करता हूँ अब, ठीक वहीँ पर जहाँ से शुरुआत की थी| राजनीति भले ही इसी का नाम है लेकिन यह सवाल फिर से उठा रहा हूँ ... आखिर जसवंत सिंह का कसूर क्या है?

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