अंग्रेज़ फौजियों के लिए औरतों को खड़ा कर दिया बाज़ार में



भारत को गढ़ने में कई साम्राज्यों और उनकी सेनाओं का हाथ रहा। इनमें से ब्रिटिश इंडियन आर्मी के बारे में हमारे पास सबसे अधिक जानकारी है। इसकी जानकारी भी कि उस आर्मी ने अपने सैनिकों और अफ़सरों की चाहतें कैसे पूरी कीं।

भारत में ब्रिटिश शासन की समस्या दो तरह की थीं। पहली यह कि अपने सैनिकों की इच्छाएं कैसे पूरी की जाएं। यह सवाल तो हर दौर में हर सेना के सामने रहा है। लेकिन दूसरी समस्या ख़ासतौर से भारत में अंग्रेज़ों की मौजूदगी से जुड़ी थी। चुनौती यह थी कि सैनिकों की चाहतें इस तरह पूरी की जाएं कि उस उपनिवेशवादी ढांचे में नस्ल से जुड़े वर्गीकरण पर आंच न आए।

दूसरी समस्या पेचीदा थी। ब्रिटिश सैनिकों की हसरतें पूरी करने से जुड़े सवाल का एक आसान हल था। ब्रिटिश सैनिकों और अधिकारियों को 'पार्टनर' मुहैया कराने के लिए अंग्रेज़ महिलाओं को भारत लाया जा सकता था। इससे जातिगत शुद्धता तो बरकरार रखी जा सकती थी, लेकिन यह लंबे समय के लिए कारगर हल नहीं था। चुनिंदा अंग्रेज़ों की पत्नियों को लाना भी एक महंगा सौदा था, क्योंकि फिर उनके लिए घर, नौकर और दूसरी सुविधाओं का इंतज़ाम करना पड़ता।

अंग्रेज़ों को डर यह भी था कि सामान्य यौन संबंधों के लिए व्यवस्था न बनी तो समलैंगिक संबंधों को बढ़ावा मिलेगा। ब्रिटिश और भारतीय सैनिक एक ही रेज़िमेंट में नहीं होते थे। उनकी बैरकें भी अलग थीं। इस वजह से मेलजोल होने और उनके बीच समलैंगिक संबंध बनने की गुंजाइश बेहद कम थी। इस बारे में सुपर्णा भास्करन कहती हैं, ‘डर यह था कि पत्नियां न होने से इम्पीरियल आर्मी में अनैतिकता की बाढ़ आ जाती।’

इस मुश्किल को दूर करने का एक उपाय यह था कि अवैध और गैरकानूनी वेश्यालयों को सेना की ख़ातिर क़ायदे-कानून के दायरे में ला दिया जाए। इस तरह पहले से मौजूद वेश्यालयों को 1850 के दशक के मध्य में ब्रिटिश प्रशासन ने मंज़ूरी दी। सरकार के नियंत्रण वाले वेश्यालय खोले गए। इनसे जुड़ने के लिए भारतीय महिलाओं का पंजीकरण होता था। महिलाओं की सेहत की नियमित तौर पर जांच की जाती, ताकि उनसे कोई बीमारी सैनिकों में न फैले।

इन वेश्यालयों को लाल बाज़ार भी कहा जाता, क्योंकि ये मुख्यतौर पर लाल कोट पहनने वाले यानी ब्रिटिश सैनिकों के लिए थे। वैसे भारतीयों को भी वहां जाने की इजाज़त थी, लेकिन केवल तब, जब अंग्रेज़ सैनिक सुबह परेड में हों। इस तरह उस दौर में पुरुष समलैंगिकता के ख़तरे से निपटने के लिए महिला वेश्यावृत्ति का इस्तेमाल किया गया। आर्थिक ज़रूरतों और यौन इच्छाओं को देखते हुए तब ब्रिटिश शासन में सेना ने बड़े शहरों में वेश्यालय खुलवाए।

ज़ाहिर है कि इन वेश्यालयों में केवल भारतीय महिलाएं थीं और इनमें आने वाले अधिकतर ग्राहक थे ब्रिटिश पुरुष। जहां संभव हो सका, वहां अंग्रेजों ने गोरे और भारतीय सैनिकों के लिए अलग-अलग वेश्यालय बनवाए, लेकिन कुछ वेश्यालय दोनों के लिए थे। ऐसा ही एक वेश्यालय लखनऊ में 1857 में था। इनमें मौजूद कुछ महिलाओं ने आरोप लगाया था कि उन्हें अपहरण कर लाया गया, कुछ दूसरी महिलाओं को रुपये-पैसे की मजबूरी ने वहां धकेल दिया। लेकिन इन सभी को उनकी ख़ूबसूरती देखकर वहां लाया गया था। उनकी सेहत की भी जांच की गई थी। ये महिलाएं काफी हद तक क़ैदियों की तरह थीं।


ऐसा लगता है कि वेश्याओं के लिए जिस अपमानजनक देसी शब्द ‘रंडी’ का इस्तेमाल होता है, उसका स्कॉटिश भाषा के शब्द ‘रैंडी’ से नाता है। रैंडी का मतलब होता है कामुकता की स्थिति।

1864 के कैंटोनमेंट एक्ट के ज़रिए इन वेश्याओं की सेहत की नियमित तौर से जांच पर ज़ोर दिया गया। इसका मक़सद यह था कि यौन संबंधों के चलते कोई बीमारी न फैले। यह जांच पुरुष डॉक्टर ही करते थे। यह एक पीड़ादायक प्रक्रिया थी। इन महिलाओं को उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ रखा जाता। भारतीय महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के ऐसे तरीकों को ब्रिटिश सैनिकों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी माना गया।

सैनिकों की संख्या के लिहाज़ से वेश्याएं बहुत कम थीं। एक महिला को कई दर्जन सैनिकों के सामने जाना पड़ता। इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता कि पुरुषों से भी बीमारियां फैल सकती थीं। ऐसे में केवल महिलाओं की जांच पर ज़ोर था।

वहीं ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया। उनकी ऐसी इच्छाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता था। उनमें से कुछ उन कैंटोनमेंट एरिया में वेश्याओं के पास जाते, जहां इसकी इजाज़त थी। वहीं कुछ दूसरे पास के शहरों में।

इन महिलाओं के साथ बेहिसाब दुर्व्यवहार होता। साथ ही, साफ़-सफ़ाई का भी ख्याल नहीं रखा जाता। इससे सैनिकों और इन महिलाओं में यौन संबंधों से होने वाली बीमारियां भी फैलीं। फिर यह समझ में आने लगा कि वेश्यावृत्ति सेहत के लिए काफ़ी ख़तरनाक़ है।

लेकिन सेना के लिए वेश्याओं के इंतज़ाम का आइडिया ब्रिटिश साम्राज्य के साथ भारत नहीं आया। शासन कला के बारे में चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु चाणक्य ने ईसा पूर्व तीसरी सदी में एक किताब लिखी थी, अर्थशास्त्र। उसमें बताया गया है कि सैनिकों की चाहतें पूरी करने के लिए ऐसा ही इंतज़ाम उस वक़्त था।

चाणक्य के दौर में भी सेना के अभियान में वेश्याएं साथ जातीं। उनके लिए रास्ते में सड़क किनारे कैंप लगाए जाते। जब युद्ध होता तो इन महिलाओं को कैंप के पिछले हिस्से में ठहराया जाता। उनसे उम्मीद की जाती कि थकान भरे दिन के बाद वे सैनिकों और मंत्रियों का दिल बहलाएंगी, बिना भेदभाव के। अगर कोई भेदभाव होता भी हो, तो कम से कम उस क़िताब में इसका ज़िक्र नहीं है।

लेकिन चाणक्य की योजना और ब्रिटिश सरकार की व्यवस्था में अंतर है। चाणक्य के दौर में वेश्याएं देसी या विदेशी का भेदभाव किए बिना पूरी सेना के लिए थीं। साथ ही, ब्रिटिश साम्राज्य की तरह वेश्याओं को जेल के क़ैदी की तरह हमेशा सेना के लिए नहीं रखा जाता था।
(स्पीकिंग टाइगर से प्रकाशित माधवी मेनन की क़िताब ‘अ हिस्ट्री ऑफ डिज़ायर इन इंडिया’ के अंश)

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