चितलवाना। गोद में बच्चा और सिर पर घड़ा लेकर आठ किलोमीटर का सफर, बेरियों से रिसते जल से हलक तर होने की उम्मीद और घंटो इंतजार के बाद पानी का जुगाड़। कमोबेश ऎसे ही हालात हैं उपखण्ड क्षेत्र में सरहद पर स्थित गांवों के। बुनियादी जरूरतों को मोहताज ये गांव आज भी विकास से कोसों दूर हैं।
क्षेत्र के गांवो में भले ही महत्वकांक्षी नर्मदा परियोजना का आगाज हुए छह साल गुजर गए हो, लेकिन गुजरात व पाकिस्तान की सीमा से सटे गांव आज भी मीठे पानी के लिए मोहताज हैं। नर्मदा नहर परियोजना के अव्यवस्थित प्रबंधन के कारण ओवरफ्लो पानी उपखण्ड क्षेत्र के कई गांवों में कहर बरपा रहा है।
इन गांवों मे जहां फसलें चौपट होने के साथ ही लोगों को आवागमन में भी परेशानी हो रही है, वहीं सरहदी गांवों में सिंचाई तो दूर, पीने तक को पानी नसीब नहीं हो रहा है। महिलाओं को घर का काम-काज निपटाने के बाद महज एक घड़ा पानी के लिए आठ से दस किलोमीटर का पैदल सफर तय करना पड़ता है।
जरूरी नहीं कि इतनी मशक्कत के बाद भी इन्हें एक घड़ा पानी नसीब हो जाए। ऎसे में गांव के लोग तालाब में बेरियां खोदकर खारे पानी से ही हलक तर करने का दंश भुगत रहे हैं।
पानी के लिए पहरा!सरहदी गांवों में बेरियों के दूषित और खारे पानी को चोरी से बचाने के लिए पहरा देना पड़ता है। सरहद पर स्थितखेजडियाली ग्राम पंचायत के कई गांवों में लोग नदी के बहाव क्षेत्र या तालाब में बेरियां खोदते हैं। यहां से तीन-चार दिन का पानी सुलभ हो जाता है।
खारे पानी से हलकतरकच्छ के रण से सटे गांवों को सालों बाद भी खारे पानी से हलक तर करना पड़ रहा है। यहां मीठे पानी की कोई माकूल व्यवस्था नहीं है। आकोडिया गांव की सरहद में ग्रामीण मिट्टी निकालकर बेरियों की खुदाई करते हैं। इनसे निकलने वाले खारे पानी से प्यास बुझाते हैं।
बिजली न आवास!
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